Wednesday 17 August 2016

सुनो तुम्हारे भीतर कुछ रेंग रहा है


मेरे पास दुख हैं. जिसमें से एक दुख ये- 
 तुम ने जिन लोगों की कतार में मुझे खड़ा कर दिया, उस कतार के लोगों ने बहुत कुछ चाहा बस तुम्हें नहीं चाहा. वे बीच के लोग थे. तुम चाहती तो न भी इस्तेमाल करती इतने ठहरे हुए शब्दों से गुंथे वाक्य. लेकिन तुमने चाहा नहीं.  तुम बीच में नहीं हो, मैं खुश हूं अपने हिस्से का, कई मुलाकातों में पहाड़ सा समझाया गया मुझे मेरा ये हिस्सा..मैं लिखना भी नहीं चाहता कि तुम ढूंढो खुद को मेरे लिखे में.. इसे कुछ आखिरी सा समझा जाए.. क्या तुम में इतनी हिम्मत बची है कि तुम पढ़ सको सुंदर दिनों के खत.

ये मौसम के खिलाफ है कि मैं रहूं तुम्हारे पास सिर्फ सर्दियों में 
ये ईश्वर के खिलाफ है कि तुम चाहों मुझे सिर्फ अपने सुखों में 
ये गणतीय नियमों के खिलाफ है, कि तुम शून्य लिए लौटना चाहो शून्य की ओर

ये भाषा के खिलाफ है कि तुम चाहो रहना मौन
क्या बुद्ध का मौन रहना उस भाषा के खिलाफ नहीं है जिससे हमने चुना था प्रेम शब्द


लड़की के भीतर रेंगता रहा है एक दूसरा आदमी. 

Saturday 13 August 2016

जंगलनामा

ये किताब पंजाबी के लेखक सतनाम ने लिखी है. पहली बार पंजाबी में लिखी गई. इसे सतनाम का जंगलनामा कहते हैं. सतनाम बस्तर  के जंगलों में आदिवासी लोगों, गुरिल्लाओं की जिंदगी को अपने दो महीने के लंबे सफर में ईमानदारी से कतारबद्ध करते हैं, ये फखत उन लोगों के बारे है जिन्हें सभ्य लोगों की तरह हमाम में नंगा होने का डर नहीं.  ये उन लोगों के बारे है जिन्हे ना मोदी का पता है ना वे जानते है कि नेहरू क्या बला थी, दिल्ली उन लोगों के लिए एक अहसास का नाम है जो सरकार से जुड़ा है. सरकार का मतलब उनके लिए ठेकेदार, दमन, पुलिस, उत्पीड़न और बेबसी है. ये उन लोगों के बारे है जो लाल सलाम के लिए लड़ रहे हैं एक ऐसा शब्द जो हर भाषा का हिस्सा हो गया है जो हर भाषा में एक सा है, किसी खास भाषा की जरूरत नहीं जैसे हां या ना के लिए किसी भाषा की जरूरत नहीं.

इसे सतनाम की डायरी कहा जाना चाहिए. ये वैसा ही है जैसे डायरी में दर्ज करते वक्त आदमी ईमानदार होता है. सतनाम अरूंधति, शुभ्रांशु चौधरी, राहुल पंडिता जैसे लेखकों की तरह नक्सलियों के टॉप कमांडर का इंटरव्यू लेने की चाहत में और उसे सनसनीखेज बनाकर बेचने की चालबााजियों के चक्कर में जंगलों का सफर नहीं करते. आप सतनाम के साथ साथ उस जंगल के खांचे तैयार करते हुए सफर करते हैं. सुरक्षित कदमों के बावजूद पीठ पर छलक रहे पानी को आप छलकते हुए महसूस कर सकते हैं, दूसरे लेखकों की तरह सतनाम का सफर भी वैसे ही शुरू होता है किसी गुप्त आदमी से मिल कर जंगल में शहर से दूर होते जाना, बार बार गुरिल्ला दस्तों का बदलना फिर तयशुदा सांस्कृतिक टोली से मिलना आदि. लेकिन सतनाम के सफर में कोई जल्दी नहीं है दूसरे लेखकोंं की तरह,

ये रिपोर्ट है उस बस्तर की जहां मलेरिया समुद्र की लहरों की तरह ठाठें मारता है. जहां लोगों की जरूरतें न के बराबर हैं.  जिसका हमारी सरकार अजायबघर की चीज बनाकर अजूबे की तरह बजारीकरण करना चाहती है. आदिवासी जीवन सभ्य समाज से ज्यादा स्वच्छंद है, अमलतास सरीखा खिले मन सा. जहां कुछ किसी से छिपा नही है, सभ्य समाज की तरह तालों में बंद नहीं है. चारदीवारी से पैदा  होती दूरियां नही है. सभ्य समाज जैसे धुंधलके यहां मौजूद नहीं है. आदिवासियों में से कुछ लोगों ने लाल का दामन थाम लिया है उनके पास अथाह अात्मविश्वास है. आत्मविश्वास की इंतहा है.

सतनाम लिखते हैं आदिवासी जीवन सांख्यिकी जीवन से कौसो दूर हैं. उनकी जरूरतें नमक हल्दी जैसी आम है हॉट बाजार में दुकानदार एक से चीज लेता है और दूसरे को दे देता है, पर ऐसा करते हुए वह एक ढेरी अपनी पास रख लेता है. यह रहस्यमयी ढेरी है जो आदिवासियों को समझ नहीं आती कि ये उसके पास कहां से आई. बस वे मान लेते हैं कि दुकानदार के पास आई .दुकानदारों के बिना चाजों को अदला बदला नहीं जा सकता. आप सोच सकते हैं उनके पास कैसे और कितने विकल्प हैं.

वे लोग जंगल के इतने भीतर है कि जहां कोई इलाज नही, बीमार हुए तो बस इंतजार करना है मौत का. पशु बेचने से भी इलाज संभव नहीं, वे लोग गाय खाते हैं वे हिंदू नहीं है उन्हे पाप का डर नहीं, वे सुअर का शिकार करते हैं उन्हें हलाल, हराम का हिसाब नहीं देना, उन्हें सभ्य समाज हिंदू बनाने की गहरी साजिशें कर रहा है.  वे कत्ल कर सभ्य समाज की तरह छिपकर संसद तक नहीं पहुंचते वे सजा के लिए खुद पेश हो जाते हैं. वे सरल है दो और दो चार की तरह. वैसे ही जैसे किसी किसी रात मेरे लिए दुख का मतलब दुख और डर का मतलब डर होता है.

सतनाम के सफरनामें में आप जान जाएंगे कि गुरिल्ला लोग क्यूं लड़ रहे हैं. उनके पास इसके सिवा दूसरा रास्ता भी नहीं, आप आरामदेह बिस्तरों में  बैठ ये सोचते होंगे कि वे चुनाव लड़ें जंगल को छोड़ शहरों में आएं हमारी तरह काम करें. आदिवासी जीवन में छोटे छोटे बदलाव के लिए सालों लगते हैं. कई इलाकों में दादा लोगों के मदद से बांध बना लिए गए हैं, झोपड़ियों के बाहर सब्जियां लगानी शुरू कर दी है, वे एक ऐसे सुंदर समय के लिए लड़ रहे हैं जो उनके जीते जी वे कभी नहीं देख पाएंगे और वे इसे अच्छे से जानते हैं.

गुरिल्ला दस्तों में बराबर के तौर पर लड़कियां हैं. दस्तों में सब बराबरी जैसा. एक ऐसा जीवन जिसमें कंधे पर बंदूके लटका कर लगातार चलना है, चौकन्ने रहना है. चौकन्ने रहना और संतरी की तरह दस्ते की पहरेदारी करना किसी जंग लड़ने से कठिन काम है. संतरी जब लंबी, ठंड़ी रातों में  अकेला पहरेदारी करता है वो पूरा जीवन फिर से रोल बैक कर जी लेता है भावुक हो उठता है, उसे भी अपनों की याद आती है, लेकिन उस से टकराते हुए वो पहरेदारी करता है. उसे चौकन्ना रहना है वो कहीं खो नही सकता. उसकी चौकसी पर पूरे दस्ते की जान अटकी है. वे लोग कतार में जंगलों में चलते हैं. फौजी दस्तूर.

वे रेडियो सुनते हैं. रेडियो ही है जिसके चलते उन्हें महीने, दिन सब याद रहते हैं. नहीं तो बस उन्हें सिर्फ मौसम याद रहें. दस्तों में घर छोड़ कर आई लड़कियां हैं जो आजाद जीवन जीना चाहती है. कई लड़कियों की शादी दस्तों में ही कर दी गई है,

वे जानते हैं वे अकेले इंकलाब नहीं ला सकते. उन्हे शहरों तक इसे लेकर जाना होगा. दिल्ली में छेद करना इतना आसान नहीं ये सिर्फ आप ही नहीं जानते वे लोग भी जानते हैं. बावजूद इसके वे सतत चल रहे हैं एक ऐसे समाज की कल्पना लिए हुए जहां पितृसता जैसे शब्द न हो, जहां किसे के छुने से गंगा में स्नान न करना पड़े. जहां जीवन को सुंदर आदिवासी सामूहिक गीतों की तरह जीया जा सके.

बारूदी सुरंगे बनाने वाले वे लोगों के पास अचार, मुरब्बे बनाने के लिए समय नहीं. सतनाम लिखते हैं हुनर के विकसित होने के लिए पेट का भरा होना जरूरी है, अभी यह पहली शर्त ही पूरी नहीं होती. सतनाम कहते हैं कि हम एक ऐसे जुल्म के दौर से गुजर रहे हेैं जब सरकार कलम को बंदूक साबित कर रही है और बैग में रखे बिस्कुटों को कारतूस

गुरिल्ला जीवन सभ्य समाज से आजाद होना है. आजादी का एक पल भी जीना एक उम्र जीने जितना होता है.

इस लिखे में बहुत कुछ किताब से लिया गया है. सतनाम को शुक्राना है.. इसे पढ़ा जाना चाहिए ..










Sunday 13 March 2016

क्या चाहिए

हमें चाहिए 
कि हम लिखें 
शिकायती पत्र
छुएं देर तक
जिसमें भरी हो ठंडी सांत्वना 
सवाल के जवाब में 
सवाल करें घंटो
हमें चाहिए 
कि मिलें तो पीले फूल नहीं 
अपने कमरों से 
दीमक उतार लाएं 
रिश्ते चाट खाने को
हम नहाएं 
मटमैले शब्दों की बारिश में 
जब तक कसैले न हो जाएं
हमें चाहिए 
प्रेम को खारिज कर 
उधार मांग लें
शहर से 
अजनबी पोशाकें 
और 
गुम हो जाएं 

Monday 7 March 2016

मैं, तुम

मैं कहता हूं, प्रेम
तुम कहती हो, दिन बुरा था, सिगरेट चाहिए
मैं कहता हूं, जिंदगी
तुम कहती हो, कल कॉलेज जल्दी जाना है
मैं कहता हूं, मौसम
तुम कहती हो, बहुत पढ़ना है
मैं जानता हूं, तुम्हारा महकना
तुम कहती हो, प्रदर्शन में बहुत भीड थी
तुमनें छोटी बिंदी लगाई है
तुम कहती हो, नौकरी मिली
मैं कहता हूं, तुम्हारी आंखें
तुम कहती हो, यहां कॉफी अच्छी मिलती है
मैं कहता हूं, तुम्हारे हाथ
तुम कहती हो, जन्मदिन पर क्या खरीदना चाहिए
मैं कहता हूं- तुम
तुम कहती हो बकवास

.....इस बीच सिगरेट बीच पसरे मौन, तैरते खालीपन को भरने का काम करती है महज. उससे ज्यादा कुछ नहीं
गले मिलना, चूमना, लौटना


Saturday 2 January 2016

तुम्हारे लिए

तुम्हारे लिए 
हो सकते हैं 
गुमशुदगी के पोस्टर 
हास्यास्पद 
या 
कटघरे में नंगी
गवाही देता आदमी
किसी नाटक का पात्र
तुम बेशक
धुंधला सकती हो
यथार्थ की जमीन
कविताओं की चाशनी में डुबोकर
लेकिन
मेरी दोस्त
कैसे नकारोगी
पांव की चुगटी
की मान्यता
कैसे छिपाओगी
देह ठगी
अपनी कविताओं, कहानियों से
बताओ कैसे

लाल लकीर

हो तो ये भी सकता था 
जिस रोज 
पटवारी ने 
दस्तखत से पहले 
शरीर पर उभरी बुनावट का
किया था 
पैना मुआयना 
वो ना भरती
जेबों में कमजोर दलीलें
या
हथियार उठाने से पहले
वो न छुपाती
सालों पुराने
ऊनी दस्तानें
हो तो ये भी सकता था
कि वो इंतजार करती
पुलिसिया कैंपों में
अभिव्यक्ति के परिपक्व होने का
या टिकाए रखती
अपनी आस्था
तुम्हारी बल्डी डेमोक्रेसी में
या 

अदालतों की
धुंधली वास्तविकता में
लेकिन नहीं
मौसम की पहली
बारिश के दिन
उसने चुने
जंगल के लंबे रास्ते
पीछे छोड़े
गांव के धुप्प 

अंधेरों वाले कमरे
शहरी सुअरबाड़े