Tuesday 24 November 2015

आत्महत्या की रात

I शहर में कत्लेआम के बाद की मनहूस उदासी क्यूं हैं, उस लडके के दिल की जेबों में स्मृतियों के कत्थे जम गए हैं जिन्हें तोडने के लिए वो देर रात किताबें जलाता है..आंखे न रास्ते होती हैं और न मंजिले और शब्दों के साथ बात करते रहना सूखी रोटियां चबाने जितना मुशिकल होता है. वो लडका सीख रहा है नकारना जैसे शब्दों को लिखना ये जानते हुए भी कि अगर उसने सीख लिया लिखना वो तब भी नहीं कर पाएगा अपने दुखों से पलायन..लडकी की गैरमौजूगी यात्राओं के दरम्यां काटती है वैसे ही जैसे कोई सीखता है नया नया तंबाकू खाना बावजूद इसके वो यात्राओं में कभी साथ नहीं रही..
काश उसे आता भेडिये की तरह शब्दों को चबाना
खेतों में सुरंगे बनाना
अनसुलझी अफवाहों को सुलझाना
क्या दर्ज करवाना चाहिए किसी अदालत में मुकदमा समय गुजारने को.. स्मृतियों को क्रमबध करने से बेहतर है लिखी जाएं फौजी कैंपों में शरीर दागने वाली रातें, किसी राहगीर को मिल जाए अपने किसी की लाश...
जीने के लिए हर किसी के पास होने चाहिए बडे दुख.. बडे दुख अक्सर छोटे दुखों को खा जाते हैं..
जिस किताब में उसने रखे हैं लडकी के खत उसी किताब में उसने रखी हैं सल्फास की गोलियां.. आत्महत्या की रात वो पढ़ना चाहेगा खतो में लिखा जीवन कई बार..


सुनो कभी बैठना मेरे पास मैं सुनाऊंगा तुम्हे एक बर्बादी की कहानी तुम्हारे नाखूनों को खुरचते हुए .. क्या तुम्हारी आंखे अब भी उतनी ही गहरी हैं ....क्या तुम अब भी वैसी ही महकती हो जानां 

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