Saturday 2 January 2016

लाल लकीर

हो तो ये भी सकता था 
जिस रोज 
पटवारी ने 
दस्तखत से पहले 
शरीर पर उभरी बुनावट का
किया था 
पैना मुआयना 
वो ना भरती
जेबों में कमजोर दलीलें
या
हथियार उठाने से पहले
वो न छुपाती
सालों पुराने
ऊनी दस्तानें
हो तो ये भी सकता था
कि वो इंतजार करती
पुलिसिया कैंपों में
अभिव्यक्ति के परिपक्व होने का
या टिकाए रखती
अपनी आस्था
तुम्हारी बल्डी डेमोक्रेसी में
या 

अदालतों की
धुंधली वास्तविकता में
लेकिन नहीं
मौसम की पहली
बारिश के दिन
उसने चुने
जंगल के लंबे रास्ते
पीछे छोड़े
गांव के धुप्प 

अंधेरों वाले कमरे
शहरी सुअरबाड़े

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